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Samaj Ko Badal Dalo (1947)

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मनोरमा एक ग़रीब क्लर्क की लड़की थी उसने एक बार- सिर्फ एक बार किशोर को देखा था। एक नाटककार के रूप में, अपनी सहेली कान्ति के भाई के रूप में जब वह उसके सामने आया तो उसके दिल में अनायास एक छोटा सा दीपक जल उठा। और जब वह शाम को घर पहुंची तो वहां भी उसे किशोर की तस्वीर देखने को मिली और साथ ही बाप के मुंह से ये भी सुना कि वो इस लड़के के लिये उसके बाप के पास जा रहे है।

मनोरमा के पिता दयाशंकर जब किशोर के पिता के पास पहुँचे तो उन्होंने आठ हज़ार रूपये दहेज के मांगे जो एक मामूली क्लर्क बस की बात न थी। दयाशंकर को लाचार हो कर लौटना पड़ा। मगर उसी वक़्त किशोर की बुआ का लड़का जयन्त जिसकी तीसरी बीवी अभी मर चुकी थी वो पहुंच गया और उसके साथ मनोरमा की शादी तय हो गई...

और किशोर जो शादी करना नहीं चाहता था उसके सामने भी एक ऐसा सवाल खड़ा हो गया जिसकी वजह से भी अपना इरादा बदलना पड़ा और उसकी भी शादी हो गई - एक मालदार की लड़की से जिसका नाम था चंपा।

सुहाग की रात चंपा जब किशोर के कमरे में घुसी तो उसने देखी एक तस्वीर जिसे देख कर वह चैंक पड़ी। वो तस्वीर थी नरेश की जो किशोर का दोस्त था जिसे एक दिन चंपा अपना दिल दे चुकी थी। नरेश की तस्वीर को किशोर के कमरे में देखकर चंपा का दिल रो उठा और वो बहोश होकर गिर पड़ी।

किशोर ने ये सब अपनी आँखों से देखा और जब उसे सारी हकीकत मालूम हुई तो उसके पैरों तले की ज़मीन हिल गई और वो चल पड़ा- समाज की झूठी शानोशौकत, पुराने रीत रिवाजों की धज्जियां उड़ाने। वो चंपा को नरेश के हाथों सौंप कर समाज के ख़िलाफ बग़ावत का झंडा फहराना चाहता था मगर अफ़सोस वो नाकामयाब हुआ। किशोर की जिन्दगी का रास्ता बदल गया। उसने घर आना जाना ही छोड़ दिया और बेचारी चंपा टी.बी. में मुबतला हो गई।

इधर बेचारी मनोरमा जयन्त की पत्नी की शक़ल में छाती में दर्द होठों पर सूखी हँसी और ज़िन्दगी में अभाव लिये अपने दिन पूरे कर रही थी।

उधर किशोर की बहिन कान्ति जिसे सुखी बनाने के लिये किशोर को चंपा के साथ शादी करनी पड़ी थी वो भी अपने घर खुश न रह सकी और एक दिन उसने अपने सारे बंधन तोड़ दिये। पति को छोड़ कर उसकी दौलत को लात मार कर बाप के घर चली गई।

अचानक एक दिन किशोर ने देखा कि एक नारी, एक ऐसी नारी, जो अनादि काल से अपनी ममता लुटा ही है... जो सदियों से गुलाम रह कर आँसू बहा रही है उसी क्षमा की मूर्ति को एक शैतान तोड़ रहा है तो उसका दिमाग़ काबू से बाहर हो गया। उसकी विद्रोही आत्मा मचल उठी-शैतान का गला घोंटने के लिये।

उस ख़ामोश नारी को शैतान के चंगुल पे छुड़ाने के लिये वो शैतान के सीने पर सवार हो गया... वो शैतान था- जयन्त और वो नारी थी मनोरमा... किशोर जयन्त का गला घोंट रहा था और मनोरमा खड़ी देख रही थी... वो कांप उठी... सीने के एक कोने में दबा हुआ उसका नारीत्व सहम उठा। और फिर? और फिर बरस पड़े किशोर की पीठ पर चाबुक... किशोर के पंजे ढीले पड़ गये उसने खुली हुई आँखों से देखा एक भारतीय नारी को... कि साथ ही टूट पड़ा ईश्वर का कोप... चीख़ उठी शैतान की आत्मा... मर गई मनोरमा, बुझ गया जयन्त का जीवनदीप।

वो एक धुंधली शाम थी जब शैतान चीख़ रहा था। मनोरमा हमेशा की नींद सोने की तैयारी कर रही थी। किशोर पास ही खड़ा हँस रहा था- पागल हो कर... इसके बाद क्या हुआ? वही जो सदियों से होता आया हैः

लोगों ने किशोर को पागल ठहराया यही है हमारी कहानी का छोटा सा आभास।

(From the official press booklet)